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कविता

गुनाहभरी नजरो की उस्ताभद

ओसिप मांदेल्श्ताम


गुनाहभरी नजरों की उस्‍ताद
छोटे-छोटे कंधों की मालकिन
शांत है आज मर्दाना मिजाज
चुप हो गई है डूब कर मेरी भाषा।

लाल पंखों-सी चमकती तैर रही हैं मछलियाँ,
फैला रही है वे अपनी स्‍वासेद्रिंयाँ
लो पकड़ डालो उन बेआवाज मुँह खोलते प्राणियों को
अपने मांस का आधा भोजन कराओ उन्‍हें।

हम नहीं है मछलियाँ लाल सुनहरी
बहन की तरह हमारी यह प्रथा है कुछ ऐसी।
गरम शरीर में पतली पसलियाँ
और पुतलियाँ की आर्द्र अर्थहीन चमक।

भौंहों की अफीम से अंकित है यह खतरनाक रास्‍ता
क्‍या कहूँ-सुलतान के अंगरक्षक की तरह मुझे भी
अच्‍छा लगता है यह छोटा-सा
होठों का असहाय अर्द्धचंद्र।

क्रोध न करो, ओ तुर्क सुंदरी,
मैं तैयार हूँ बोरी में सिल जाने के लिए तुम्‍हारे साथ
अमंगल की सुन लूँगा तुम्‍हारी सब बातें
जहरीला पानी भी पी डालूँगा तुम्‍हारी खातिर।

मरने वालों का सहारा हो तुम, मारिया,
मृत्‍यु का पूर्वानुमान लगा सो जाना चाहिए।
मजबूत देहरी पर खड़ा हूँ मैं
चली जाओ, चली जाओ, नहीं, रुक जाओ कुछ देर और ... !

 


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